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‘श्रेय’ और ‘प्रेय’

मनुष्य ‘श्रेय’ और ‘प्रेय’ अर्थात् कल्याणकारी और ‘पसंदीदा’ के संघर्ष में से सरलता से मुक्त नहीं हो सकता। उसे जो पसंद होता है वह ‘श्रेयस्कर’ नहीं हो तो भी उसे श्रेयस्कर होता है, वह व्यक्ति अपने गणना, अपेक्षाओं के कारण ‘प्रेय’ अर्थात किसी का भी नहीं हो ! इन दोनों स्थिति में से व्यक्ति अधिकांशतः ‘प्रेय’ का मार्ग अपनाता है, जो बाहर से सुखद है, सुंदर है, आरामदायक है, आनंददायक है वह मनमोहक है।
सद्गुणों का मार्ग साधना का मार्ग है। सद्गुणों के जतन के लिए व्यक्ति को सतत जागृत रहना पड़ता है। त्याग-समर्पण की तैयारी रखनी पड़ती है। जीवन में अनेक बाह्य आकर्षण, प्रलोभन और सुख-सुविधा का त्याग करना पड़ता है सहन करने की तैयारी रखनी पड़ती है। मनुष्य को इसके लिए मनोबल सीखना पड़ता है। विवेक के दीपक को जलाए रखना पड़ता है और जो छोड़ने योग्य है या जो करने योग्य है, उससे मुक्त होने या मुक्त रहने के लिए वैराग्य भाव रखना पड़ता है। इन दोनों की तुलना में ‘प्रेय’ शैली वाला जीव उसे अधिक अनुकूल लगता है।
 

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